सम्मतियाँ


नजरिया

डा. लाल रत्नाकर के चित्रों का मैं प्रशंसक हूं। उन्होंने गांव- चौपाल के लोगों की आत्मीय जिन्दगी को अपना केन्द्र बनाया है। प्रायः वे प्रकृति और श्रम के साथ जुड़े स्त्री-पुरूषों को प्रियदर्शी चटख रंगो में चित्रित करते हैं, शायद इसीलिए उत्सवी माहौल बना रहता है। वे जीवन और जमीन के चित्रकार हैं। इधर स्थूल रूपाकारों की सीमाओं को तोड़करवे अपनी बात को गहरे अर्थ देने की कोशिश कर रहे हैं - यही फोटोग्राफी और चित्रकला में अन्तर है। मुझे उनके अगले विकास की प्रतीक्षा है। उनकी सफलता के लिए मेरी अनेक शुभकामनाएं...............
राजेन्द्र यादव,
कथाकार, संपादक: हंस


ग्राम्य जीवन को उकेरती हुयी बोलती हुयी रेखाएं और उनका अंतर्द्वंद .
डॉ.प्रभा खेतान 
प्रख्यात साहित्यकार 
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धूसर प्रान्तर के अंचल में,
रंगों रेखाओं का विधान ।
आक्षितिज सृष्टि के विविध रूप,
उनके चित्रों में दृश्यमान ।।
उपरोक्त काब्य पंक्तियों के आलोक में डा.लाल रत्नाकर की चित्रात्मक सृजनशीलता पर विचार करें तो उनके रचना संसार का सम्पूर्ण परिदृश्य हमारे नेत्रों के सम्मुख उजागर हो जाएगा।
डा. लाल रत्नाकर ने जिस ग्राम्य इतिवृत्त को अपनी कला का उपजीव्य बनाया है उसे कविवर सुमित्रानन्दन पन्त की काव्य भाषा में भारत माता ग्रामवासिनी के रूप में सहज व्याख्यायित किया जा सकता है।
डा. लाल रत्नाकर के छोटे बड़े सभी रंगायित चित्रों में खेत, खलिहान, पशु-पक्षी, पेड़, सर, सरिता और मानवीय आभा के शत शत रूप अंकित होते दीख पड़ते हैं। भारत के सम्पूर्ण कला जगत में वह एक ऐसे विरल चितेरे हैं जिन्होंने अनगढ़, कठोर और श्रम स्वेद सिंचित रूक्ष जीवन चर्या को इतने प्रकार के रमणीक रंग-प्रसंग प्रदान किए हैं कि भारतीय आत्मा की अवधारणा और उसका मर्म खिल उठा है।
आज रंग संसार में जिस प्रकार की अबूझ अराजकता दिनों दिन बढ़ती जा रही है उनका सहज चित्रांकन न केवल उसे निरस्त करता है वरन भारतीय परिवेश की सुदृढ़ पीठिका को स्थापित भी करता है।
जीवन संगीत को एक मधुर लयात्मक गति देने वाले डा. लाल रत्नाकर के इस अनूठे रचना प्रसार को देखकर विष्वास होता है कि जन जीवन में व्यापक पैठ बनाने वाली उनकी विविधवर्णी तूलिका की छटा हमें निरन्तर दृष्टि और विचार संपन्न बनाने की दिशा में संकल्पवती बनी रहेगी।
से.रा.यात्री
प्रख्यात साहित्यकर्मी 
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रत्नाकर की कला में ग्रामीण परिवेश का वह हिस्सा जगह बनाता है जो सदियों से उपेक्षित रहा है. इस समाज की विविध छवियां सहज ही इनके चित्रों का विषय बन गयी हैं यह समाज अपने समस्त राग द्वेष और उत्सवों के साथ हमारे समक्ष एकाएक उपस्थित होता है तो हम शहरी परिवेश से निकलकर अपने उस यथार्थ धरातल पर पहुंच जाते है जो हमारे अंतर्मन में कहीं गहरे तक समाया हुआ है।
सन्तोष कुमार यादव
आई.ए.एस.
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I met Dr. Lal Ratnakar at Amritsar art camp organised by AIFACS just a couple of years ago. It followed by an artist camp at Gaziabad where Dr Ratnakar himself was the organizer.
Dr Ratnakar as I found, is an aware art teacher, a promising painter and an organizer of great capabilities. As a painter, I found in him an intricate observer delving with his innate concerns for the locale where, people, nature and even myth become a source of reverie to him. Dr. Ratnakar in these works seems to be welded to the imaginary camera as if observing the world around as a photo– realist. Hear he seems to be transforming his inner metaphysical world and the syntax for a transcription of the visual world into form.
In nut-shell, this artist has opened up all the chapters of his inner world exposing clues, the world-view of the artist in him.
P.N. Choyal 
Renowned Painter 
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A- Never ending urge to explore. B- Tenacity of purpose. C- One point agenda in life. No wonder why Dr. Lal Ratnakar looks taller than his contemporaries.
AABID SURTI
Renowned Painter, Cartoonist and Literature    
      
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For the first time I have seen painting exhibition on village theme. I am very much touched by the selection of simple subjects and the artists ability to bring out the expressions in such a way that even a common man can understand. It is a marvelous expression of artist's thought process on a common theme. I would like to congratulate the artist and wish him all the best in all his future endeavors.
Padmashree Dr. LALJI SINGH, 
Director, CCMB, Hyderabad AP
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Ratnakar's paintings and drawings are free from western art influences and deliberately ignored so called Indian urban sensibilities. But they are very much contemporary. They are the representatives of rural India .
Ratnakar has deep understanding of socio-economic, socio-cultural and socio-political conflicts of north Indian states and their knowledge reflects in his works and often strengthens it. His bold and powerful lines make his work distinctive and his bright colours make them inspiring.
Vinod Verma
Producer,
BBC WORLD SERVICE
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स्नेही रत्नाकर जी,
नमस्कार
आपका ब्लॉग देखा। नारी जीवन को, विशेषकर ग्राम्य नारी की विभिन्न छवियों और भावभंगिमाओं को जैसी रेखाओं और रंगों में आपने उभारा है, जैसा उनकी रूह को बोलते हुए दिखाया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। आपको बहुत बधाइयाँ। 
आपका प्रशंसक  (प्रख्यात साहित्यकार)
कुँवर बेचैन 
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(पिछले दिनों मेरे चित्रों की एक प्रदर्शनी ललित कला अकेडमी नई दिल्ली  की गैलरी सात और आठ में आयोजित हुयी जिसमें अनेक गणमान्य अतिथि शरीक हुए जिन्होंने कुछ न कुछ मेरे चित्रों के विषय में लिखा है . उनके विचारों को यहाँ दे रहा हूँ) -

"महिलाओं के एसे रूप जो आजकल नज़र नहीं आते, औरतें जो तरक्की की खान हैं, लेकिन अपने को व्यक्त नहीं कर पा रहीं; उनकी समग्र शक्ति और रचना का दर्शन करने के लिए डॉ.लाल रत्नाकर बधाई के पात्र हैं."
श्री संतोष भारतीय
संपादक 'चौथी दुनिया'

"वर्तमान परिदृश्य में मिडिया अथवा कला जगत में भारत को देख पाना कुछ मुश्किल हो गया है ! डॉ.लाल रत्नाकर के चित्रों भारत, भारत का ग्रामीण जीवन, ग्रामीण परिवेश देखकर ख़ुशी हुयी . महिलाओं की छवियों को  विविध रूपों , आयामों में देखना एक सुखद अनुभव रहा . बहुत २ बधाई एवं शुभकामनाएं .
डॉ.लक्ष्मी शंकर वाजपेयी
केंद्र निदेशक 'आकाशवाणी' नई दिल्ली

Pl. go on - as vibrantly as you can ! 
डॉ.अशोक वाजपेयी 
अध्यक्ष 'ललित कला अकादमी' नई दिल्ली
मैं रत्नाकर के चित्रों का प्रसंशक हूँ.
श्री उदय प्रताप सिंह 
कवि एवं चिन्तक
ग्राम्य परिवेश में औरतों की भाव-भंगिमाएं, जिसमें वहां की अनेक विसंगतियां उभरती हैं , देखना ! सचमुच सुखद है. कुछ नए चित्रों और रेखांकनों में जीवन जिस तरह अभिव्यक्त है, वह कम सराहनीय नहीं . बधाई ! शुभकामनायें!
श्री हीरा लाल नागर
अहा ! जिंदगी
डॉ.रत्नाकर की कला प्रदर्शनी लोक जीवन का रंगोत्सव है . लोक मुहावरे की पकड़ और आधुनिकता के प्रयोग ने इनके कलाकर्म को विशिष्ट बनाया है. बधाई !
श्री प्रदीप सौरभ 
पत्रकार एवं साहित्यकार 

श्रमशील ग्रामीण  महिलाएं - एक लुप्त होती हुयी प्रजाति - रत्नाकर जी की दृष्टि और संवेदना की दाद दे रहा हूँ . नुह की नाव की तरह कुछ बचा लिया जाय भविष्य के लिए-----! 
श्री संजीव 
साहित्यकार एवं कार्यकारी संपादक 'हंस'

स्त्री विहीन लोक जीवन की कल्पना ही असंभव है . आप ने इसी जीवन की विभिन्न छवियों को, जीवन की श्रम संस्कृति को जिस तरह रचा है, उसके लिए बार बार बधाई .
श्री राम कुमार 'कृषक' 
पत्रकार एवं साहित्यकार

अद्भुत
प्रो.प्रमोद कुमार यादव
स्कूल आफ लाइफ साइंस
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
It is an excellent expression of women & village in unique colour compositions reminding Gandhiji's concept of India; a federation of seven lakh villages, the cultural spirit of India.
प्रो.पी. सी. रथ  
स्कूल आफ लाइफ साइंस
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली 

ये रंग - रेखाएं 
जैसे बोल उठेंगी 
अभी अभी 
जिवंत , संवेद्य 
मैं महसूस कर सकता हूँ इनमें 
अपनी और 
अपनी माटी की गंध.
कितने अपने आस पास है .
डॉ.चन्द्र देव यादव
हिंदी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया नई दिल्ली 

कल मैंने आपकी पेंटिंग देखीं थीं। अभिभूत हूँ उन्हें देख कर। अन्य चित्र प्रदर्शनियों के समान आपकी चित्र प्रदर्शनी फर्नीचर की दुकान समान नहीं थीं। लाल रत्नाकर जी के चित्रों से रू ब रू होते ही आप एक सम्मोहन में बंध जाते हैं मानो। पेंटिंग के पात्र-दृश्य-रंग-ब्रुश स्ट्रोक मानो सांस लेते हैं आपके साथ। उनके दर्द में आप उदास होने लगते हैं, उनके उल्लास में आप मानो नाचने के लिए आतुर होने लगते है। पेंटिंग्स के बीच में खड़े हो कर लगता है मानो किसी भूले-बिसरे मित्र ने अचानक आप को छू लिया हो और धीरे से मानों कान में कहा हो-" इतने दिन बाद आए ! मैं कब से प्रतीक्षा कर रहा था/रही थी " रंग मानो आपके अंतस में पैठ कर आपको सराबोर कर देते है। ब्रुश स्ट्रोक ऐसे कि लगे मानो अभी भी पात्रों को सहला रहे हों। जीवन की कठोरता, दारिद्र्य में भी पात्रों,दृश्यों,रंग, संयोजन की कोमलता बनी          रहती है। मैं अभिभूत हूँ। धन्यवाद रत्नाकर जी.
श्री उमराव सिंह जाटव 
लेखक, नई दिल्ली 
हिन्दी लेखक हैं । उपन्यास 1, कहानी संग्रह 1, कविता संग्रह 2 पुस्तकें छप चुकी हैं। उपन्यास पर श्री लक्षमी प्रसाद कर्ष ने गुरु घासी दास विश्वविद्यालय से एम फिल । देश की बहुत सारी हिन्दी पत्रिकाओं में कहानी और कविताएँ छपी हैं। घोर नास्तिक हैं। लेकिन मन-वचन-कर्म से बौद्ध हैं| केन्द्रीय सुरक्षा बल में अधिकारी रहे है.
यों तो पूरी-की-पूरी बातचीत ही स्तरीय और उल्लेखनीय है, लेकिन अपनी कलाकृतियों में चित्रित स्त्री के बारे में आपका यह मंतव्य उस भद्र-समाज के समक्ष प्रस्तुत करने योग्य है जिसकी दृष्टि स्त्री की विवशता, उसकी निर्धनता, उसकी श्रमशीलता को ग्लैमर के नित नये कोण से देखने की अभ्यस्त हो चुकी है:"मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है. यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा. उनके लय, उनके रस के मायने जानना होगा. उनकी सहजता, उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सुखाकर बचाए हैं, दो जून रूखा-सूखा खाकर तन ढ़क कर यदि कुछ बचा तो धराऊं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर आती हैं, वस्तुत: वैसी वो होती नहीं हैं.उनका भी मन है, मन की गुनगुनाहट है, जो रचते है अद्भूद गीत, संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है. उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे, यही प्रयास दिन-रात करता रहता हूं. मेरे ग्रामीण पृष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं किसी दूसरे विषय का वरण अपनी सृजन प्रक्रिया के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रामीण परिवेश ने मुझे पकड़े रखा."
-बलराम अग्रवाल 
लेखक, नई दिल्ली 

आपका ब्लाग तो सृजन की अनंत सम्भावनाओ से भरा है। ग्राम्य औरतो के इतने मार्मिक चित्र एकत्र इससे पहले नही देखे। स्त्री वेदना की संवेदना को विस्तार देते आपके चित्र बहुत कहते हैं। ये चित्र सहज जनवादी ढंग से स्त्री मन की विवेचना करते हैं। हार्दिक बधाई। 
-भारतेंदु मिश्र 
साहित्यकार नई दिल्ली 
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रत्नाकर जी, आप बेमिसाल कलाकार तो हैं ही, उसके विषय में कुछ कहना तो सूरज को चिराग दिखाना है, पर आपका यह लेख मुझे बहुत भाया। मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां ... इन शब्दों से जो अनुच्छेद शुरू होता है वह भारतीय समाज के प्रति आपकी गहरी समझ का परिचायक है साथ ही यह भी पता चलता है कि आप अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद जमीन से किस तरह जुड़े है। आज के भारत को ऐसे ही लोगों की आवश्यकता है। आपकी तमाम भारतीयता आपके रंगों और आकारों में झलकती है। इस रचनाधर्मिता के लिये अनेक शुभकामनाएँ ! 
पूर्णिमा वर्मन 
संपादक -अनुभूति व अभिव्यक्ति 
शारजाह 

बेहद कलात्मक, काव्यात्मक और भावनात्मक ब्लॉग। सही रंगों का चयन, एकदम सटीक प्रस्तुतिकरण और सब कुछ पूरी तरह से पूर्णता लिए। बहुत दिनों बाद ऐसी ताज़गी से भरपूर किसी ब्लॉग को देखा।  रत्नाकर जी की पेंटिंग की महिलाएं आंतरिक द्वंद की कहानी कहते हुए भी मुखर हैं, सुंदर और सुखद। यह पेंटिंग्स औरत के एक अलग चेहरे को उभार कर लाती हैं। वैसे यह विश्वास करना ज़रा मुश्किल लगता है कि यह कमाल किसी पुरूष के ब्रश का है। इन पेंटिंग्स की आवाज़ बहुत दूर तक जाएगी।

वर्तिका नंदा 
प्राध्यापिका, लेडी श्रीराम कालेज  नई दिल्ली 
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डॉ.लाल रत्नाकर की कला से मेरा परिचय मेरे लंदन प्रवास के दौरान ही हो चुका था जब मैं वहाँ बीबीसी हिंदी में संपादक के तौर पर कार्यरत थी. लेकिन उन्हें बीबीसी से जोड़ने का श्रेय जाता है मेरे बीबीसी हिंदी के सहकर्मी विनोद वर्मा को जब उन्होंने डॉक्टर साहब से हिंदी पत्रिका के लिए कुछ रेखाचित्र बनाने का अनुरोध किया. बीबीसी हिंदी डॉट कॉम में साहित्यक पत्रिका एक नया प्रयोग था. इस पत्रिका में हर सप्ताह एक कहानी और कुछ कविताओं को स्थान दिया जाता था. विनोद जी का मानना था कि यदि हम इन रचनाओं के साथ रेखाचित्रों का इस्तेमाल करें तो एक नयापन ला  पाएँगे. मैं उनसे सहमत थी और इस तरह डॉक्टर लाल रत्नाकर बीबीसी हिंदी के साथ जुड़े. मुझे यह बताते हुए बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि पाठकों ने जिस तरह इस नए प्रयोग को सराहा उसी प्रकार डॉ. रत्नाकर के बनाए चित्रों की भी प्रशंसा की. मैं तो यह कहूँगी कि उन रचनाओं की लोकप्रियता में इन चित्रों का काफ़ी बड़ा हाथ था.
डॉ. रत्नाकर के बनाए चित्र मैंने बाद में प्रदर्शनियों  और कई पुस्तकों के आवरण पर भी देखे. नारी की व्यथा, उसकी मनोभावना, उसकी सोच को जिस प्रकार उन्होंने कागज़ पर उकेरा वह विलक्षण है. प्रतीक्षारत नारी, कामकाजी स्त्री, फ़ुर्सत के क्षणों में गपशप करती महिलाएँ, सभी उनकी कूची के माध्यम से सजीव हो उठती हैं. सामान्यतः ग्रामीण परिवेश में जीने वाली महिलाओं पर उनका फ़ोकस रहा है और समाज का यह उपेक्षित वर्ग कैनवस पर विशिष्ट बन उठा.
मैं डॉक्टर लाल रत्नाकर की कला की प्रशंसक हूँ और मेरी शुभकामनाएँ सदैव उनके साथ हैं.
सलमा ज़ैदी
पूर्व संपादक,
बीबीसी हिंदी डॉट कॉम
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चाटुकारों और भांटों को पुरस्कृत करके कला को  उन्नत नहीं किया जा सकता ? 


माननीय मुख्यमंत्री जी  

आपके 5 वर्षों के शासनकाल में कितने संगीत के महाविद्यालय खोले गए या कितने कला महाविद्यालय खोले गये हैं, बहुत ही अफसोस है कि बातें बड़ी-बड़ी करते हैं पर योजनाए नहीं है।  

उत्तर प्रदेश की सरकार को कितना पता है की कला है क्या ? कला अकादमियों की दशा और दिशा क्या है ?  

मान्यवर जैसा कि बहुप्रचारित है कि आपके यहां भांटो की जमात के सिवा कुछ है ही नहीं जिसकी वजह से प्रदेश की कला और संस्कृति की गरिमामयी पहचान नहीं बच पायी है बल्कि अपनी स्मिता ही खो दी है। इसका मुख्य कारण सरकारों में बैठे लोगों का इसके प्रति उदासीन होना है, या तो अज्ञानी होना है।  

जितने भी संस्थान राज्य सरकारों ने पहले से शुरू किए थे उसके उपरांत कही पर न तो कोई संस्था ही खोली गई और न ही पुरानी संस्थाओं के आधुनिकीकरण पर ही कोई जोर दिया गया है।  

उल्ठे अनुभवहीन और अज्ञानी तथा निजी क्षेत्रों के हस्तक्षेप के कारण यह विधा कुछ खास किस्म के लोगों के हाथों में सिमट कर रह गई है।  यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि इस सरकार के 5 वर्षों के शासन काल में केवल और केवल यशभारती पुरस्कार उनको दिए गए जो कुपात्र हैं ! 

यही कारण है की उसे प्रामाणिक बनाने के लिए कुछ ऐसे लोगों को पुरस्कृत किया जा रहा है जिनका उत्तर प्रदेश से कोई लेना देना नहीं है।  

अन्यथा राष्ट्रीय स्तर पर जिन्हें कभी सम्मानित नहीं किया गया है उनका उत्तर प्रदेश की कला से कोई लेना देना नहीं है ! जबकि उत्तर प्रदेश जिन कलाकारों को सम्मानित किया जाना चाहिए उन्हें सरकारी नुमाइंदे पहचानते तक नहीं हैं।  

जिससे यहाँ के जन सामान्य में कला और संस्कृति का प्रचार प्रसार और प्रोत्साहन ना के बराबर रह गया है हमको नहीं लगता कि आने वाले दिनों में कोई भी सरकार इस पर गंभीर हो सकेगी जो लोग अब सत्ता में आ रहे हैं, उन्हें न तो इसकी समझ है और ना ही वे इसकी उपयोगिता समझते हैं। 

हां आपके शासन काल में राज्य की भोंडी संस्कृति का केन्द्र सैफई जरूर बना है जिससे हुई बदनामियों और नेकनामियों से पूरा देश वाकिफ है। हां आपके पास न तो समय है और न ही समझ कि आप प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत को बचा सकें।  

लगभग यही हाल साहित्य, मीडिया और अन्य क्षेत्रों का भी है, जिसमें आपको यह ज्ञान हो कि विविध क्षेत्रों के विशेषज्ञ कौन हैं, जो समाजवादी संस्कृति, साहित्य, ललित कलाएं, लोक कलाएं और मीडिया के सम्वाहक बनते। 

इस दुखद पहलू के लिये सुखद संदेश। 

सादर। 

डॉ लाल रत्नाकर